बेड़ियां तोड़ डालूंगी।
मैं आभा, 18 वर्षीय विवाहिता। 15 वर्ष की उम्र में माँ ने मेरा ब्याह करवा दिया था।एक अधेड़ पुरुष के साथ जुड़ कर,मुझे ऐसा लगा के जैसे मैं आग के पिंजड़े में हूँ। अधेड़ तो मैं दुःखी मन से बर्दाश्त कर लेती, मगर उसकी गालियाँ और शराब, मुझे हर पल एक ज़हर का घूट पीने पर मजबूर कर देती थी। मुझे लगता था ये दिन मेरा आख़िरी दिन ही होगा।तीन बार खुद को तेल के हवाले भी किया, मगर वही ढाक और पात। फिर खुद ही फंदे पर लटकी। मूआ! स्टूल ही टूट गया। लगता था भगवान ही नहीं चाहता था के मैं उसके पास आऊं।
एक रात की बात है मैं खाना बर्तन कर के सो गई। गिरधर (पति) रात 1 बजे तक भी नहीं आया था। रात के आख़िरी पहर में दरवाजा खटकने की आवाज़ के साथ मेरी सदियों की नींद जो जीवन के चक्रव्यूह से कोसो दूर थी , वो टूट गई। द्वार खोल के देखा तो गिरधर शराब की बोतल के साथ साथ एक दरोगा को भी साथ लाया था। मैं एकबार तो समझी गिरधर को पकड़ कर दरोगा घर आया है, पर दरोगा को गिरधर खुद अपने घर पर मेरी देह का सौदा कर के लाया था।
साहब! ये है। जो करना है कर लो ( गिरधर दहाड़ा)
मैं तब भी न समझ सकी थी के आज मेरा पासबान मेरी इज़्ज़त को दांव पर रख आया है, और आज मैं वो बाज़ार बनने वाली थी, जिसके खरीदार की शुरुआत हो चुकी थी।
दरोगा : देह से तो कोमल है, परन्तु साथ देगी मेरा?
गिरधर: अरे!साहब कैसे नही देगी आपका साथ।
मैं बोल पड़ी ' गिरधर ये तुम क्या अनाप शनाप बके जा रहे हो।
गिरधर: आज मेरी सेज नहीं दरोगा की सजेगी।
मैं टूट कर ज्यों बिखर गई मानो लगा के किसी शीशे पर कई मन का पत्थर आ गिरा हो
मैं द्वार की ओर बढ़ी ओर भागने को मेटे कदम विवश हो रहे थे। पर जब भाग्य की सीमा में मुझे पति के सामने वैशया बनने की हो तो भला कौन रोक सकता है।
मेरी साड़ी का आँचल पकड़ कर गिरधर ने मुझे एक पत्नी से एक वेश्या की उपाधि देने में देर न करी।
भोर में मुर्गे की बांग से गिरधर की चोर नज़र के साथ साथ उसकी नींद भी उखड़ गए। मैं तो मानो वो मूर्ति बन गयी थी, जो बीती रात पूजनीय थी और अब बस एक मिट्टी का पुतला भर, जो न तो पौधे के काम आ सके न किसी लीपापोती के।
गिरधर -चल, खाना लगा, रात से भूखा हूँ.दरोगा रोज़ आएगा, और ज़रा सी भी चूं चैं की तुझे तलाक देकर किसी कोठे पर छोड़ आऊंगा।यहाँ तो तेरा एक खरीदार होगा, वहाँ न जाने कितने सैकड़ो।
मैं मूक दृष्टि से ये सब देख रही थी।और कोस रही थी।
मैं औरत क्यों हूँ। पर अंदर की आभा की आभा अभी भी कमज़ोर नही पड़ी थी।
मैं शांत स्वभाव से खाना परोस कर नहाने चली गयी।
मैं आभा, 18 वर्षीय विवाहिता। 15 वर्ष की उम्र में माँ ने मेरा ब्याह करवा दिया था।एक अधेड़ पुरुष के साथ जुड़ कर,मुझे ऐसा लगा के जैसे मैं आग के पिंजड़े में हूँ। अधेड़ तो मैं दुःखी मन से बर्दाश्त कर लेती, मगर उसकी गालियाँ और शराब, मुझे हर पल एक ज़हर का घूट पीने पर मजबूर कर देती थी। मुझे लगता था ये दिन मेरा आख़िरी दिन ही होगा।तीन बार खुद को तेल के हवाले भी किया, मगर वही ढाक और पात। फिर खुद ही फंदे पर लटकी। मूआ! स्टूल ही टूट गया। लगता था भगवान ही नहीं चाहता था के मैं उसके पास आऊं।
एक रात की बात है मैं खाना बर्तन कर के सो गई। गिरधर (पति) रात 1 बजे तक भी नहीं आया था। रात के आख़िरी पहर में दरवाजा खटकने की आवाज़ के साथ मेरी सदियों की नींद जो जीवन के चक्रव्यूह से कोसो दूर थी , वो टूट गई। द्वार खोल के देखा तो गिरधर शराब की बोतल के साथ साथ एक दरोगा को भी साथ लाया था। मैं एकबार तो समझी गिरधर को पकड़ कर दरोगा घर आया है, पर दरोगा को गिरधर खुद अपने घर पर मेरी देह का सौदा कर के लाया था।
साहब! ये है। जो करना है कर लो ( गिरधर दहाड़ा)
मैं तब भी न समझ सकी थी के आज मेरा पासबान मेरी इज़्ज़त को दांव पर रख आया है, और आज मैं वो बाज़ार बनने वाली थी, जिसके खरीदार की शुरुआत हो चुकी थी।
दरोगा : देह से तो कोमल है, परन्तु साथ देगी मेरा?
गिरधर: अरे!साहब कैसे नही देगी आपका साथ।
मैं बोल पड़ी ' गिरधर ये तुम क्या अनाप शनाप बके जा रहे हो।
गिरधर: आज मेरी सेज नहीं दरोगा की सजेगी।
मैं टूट कर ज्यों बिखर गई मानो लगा के किसी शीशे पर कई मन का पत्थर आ गिरा हो
मैं द्वार की ओर बढ़ी ओर भागने को मेटे कदम विवश हो रहे थे। पर जब भाग्य की सीमा में मुझे पति के सामने वैशया बनने की हो तो भला कौन रोक सकता है।
मेरी साड़ी का आँचल पकड़ कर गिरधर ने मुझे एक पत्नी से एक वेश्या की उपाधि देने में देर न करी।
भोर में मुर्गे की बांग से गिरधर की चोर नज़र के साथ साथ उसकी नींद भी उखड़ गए। मैं तो मानो वो मूर्ति बन गयी थी, जो बीती रात पूजनीय थी और अब बस एक मिट्टी का पुतला भर, जो न तो पौधे के काम आ सके न किसी लीपापोती के।
गिरधर -चल, खाना लगा, रात से भूखा हूँ.दरोगा रोज़ आएगा, और ज़रा सी भी चूं चैं की तुझे तलाक देकर किसी कोठे पर छोड़ आऊंगा।यहाँ तो तेरा एक खरीदार होगा, वहाँ न जाने कितने सैकड़ो।
मैं मूक दृष्टि से ये सब देख रही थी।और कोस रही थी।
मैं औरत क्यों हूँ। पर अंदर की आभा की आभा अभी भी कमज़ोर नही पड़ी थी।
मैं शांत स्वभाव से खाना परोस कर नहाने चली गयी।
No comments:
Post a Comment