Friday, September 6, 2019

एक पल्लवी

परतापुर का चौराहा,
यहां अनेक मिष्ठान की दुकानें ,और शुद्ध खोये की दुकान, बीच चौराहे पर एक विशाल पीपल का वृक्ष, जिसके तने से मोटी उसकी शाखाएं थी, और तने पर गुंथा हुआ लाल धागा जो ना जाने कितने लोगों की आस्था लिए हुए मोटे तने के चारों और बंधा हुआ था। इस पेड़ ने ना जाने कितनी सदियां और कितने ही वंश देख लिए होंगे। उस वृक्ष की कठोर पत्तियां अपनी आयु का साक्ष्य प्रस्तुत करती थी।

चौराहा पूरे शोर ओ गुल से भरा रहता था। वहाँ अनेक प्रकार की दुकानें जो थी, उनमे से एक दुकान सोहन हलवाई की थी, जो कंजूस तो था ही साथ के साथ लालची भी। सोहन हलवाई का अधिक से अधिक समय अपनी दुकान पर ही व्यतीत होता था। उसके पांच पुत्री थीं, जिनके दहेज की चिंता उसको सताती रहती थी, और उसकी चिंता व्यर्थ ही थी, क्योंकि बच्चियों की आयु अभी बहुत छोटी थी। सबसे बड़ी बेटी पल्लवी,जिसकी आयु 17 वर्ष की थी, और दूसरी 15 अनामिका, फिर 13 नेहा, आदि। घर में गूंगी माँ भी थी, जो बस सुन सकती थी बोल नहीं पाती थी। अपनी ना जाने कितनी व्यथा और कितने ही दुःख वह किसी से भी साझा नहीं कर पाती थी, लिखना आता नहीं था, उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर था। सोहन हलवाई की भी हालत कुछ ऐसी ही थी। सोहन, ने अपने जीवन में कभी कुछ भी नहीं कमाया था, दुकान में जो भी कुछ बचता था वो सब उसकी दुकान का नौकर हिसाब किताब करके उसके पैसों में घपला कर देता था। दस हज़ार की कमाई को वो पांच हज़ार कर देता था। यह सारी स्तिथि उनके बेटियां भी देखतीं थीं, और आवाज़ उठाती थी के पिताजी हमको भी पढ़ने जाना है हमको विद्यालय भेजो, मगर सोहन हलवाई के कानों में जूं तक ना रेंगती थी, और कहता था।
"लड़कियों को पढ़ कर क्या करना, उनको वही चूल्हा चोखा ही तो करना है"

यह बात सुनके आनंदी( पत्नी)और बच्चियों के मुख से कुछ ना निकल पाता वे सब चुपचाप यही सुनती रहती थीं।

पल्लवी अपनी शिक्षा को जारी रखने की बात पर अडिग रहती थी, वह सोचती थी अगर माँ पढ़ी लिखी होती तो लिख कर अपने मन की व्यथा को लिख कर हम सब से साझा कर पाती,और बहुत सी बातें पल्लवी की मानसिक स्तिथि को झकझोर कर रख देती थी।

पल्लवी ने केवल पांचवी तक कि शिक्षा ग्रहण की थी, वह भी मौसी की वजह से, जब वह परलोक सिधार गयीं तभी से पल्लवी की शिक्षा भी बीच में ही छूट गई थी। पल्लवी एक मेधावी छात्रा थी,जिस विद्यालय में पल्लवी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की थी उस विद्यालय की प्रधानाचार्या और उसकी कक्षा अध्यापिका इस बात से आहत थीं के ,जो बच्ची अपनी कक्षा में सर्वोत्तम अंक प्राप्त करती है,उसके पिता ऐसी सोच रखते हैं,और उसको आगे नहीं बढ़ने दे रहे। कक्षा अध्यापिका जिनका नाम प्रतिभा था, वह पल्लवी के घर जाकर उनके पिताजी से बात की और उन्हें बहुत समझाया के शिक्षा का महत्व आजकल के दौर में कितना आवश्यक है,मगर उसके पिताजी के कानों में जू तक ना रेंगी,उन्होने साफ इंकार कर दिया के पल्लवी अब कभी विद्यालय नहीं जाएगी। अध्यापिका जी को बहुत आघात लगा वह मानसिक तनाव में आ गईं, और बहुत दिनों तक पल्लवी के बारे में ही सोचती रहीं।उन्होंने पल्लवी के घर आना जाना प्रारंभ कर दिया और पल्लवी को समझाया के तुम हिम्मत मत हारना, और मैं तुमको घर आकर भी पढ़ा सकती हूँ। मगर यह बात भी पल्लवी के पिता ने नहीं मानी। श्रीमती प्रतिभा ने पल्लवी को एक राय दी के वह कभी भी शहर की संस्था बाल एवम महिला सुधार गृह से सम्पर्क कर सकती है।पल्लवी ने यह बात ध्यान से समझ ली।

बाकी की चार बहनों को पल्लवी, हिंदी और अंग्रेजी भाषा के आधार को सिखाती थी, और चारों बहनें लिखना और पढ़ना सीख गईं थीं। पल्लवी को अपनी शिक्षा की चिंता दिनों दिन खाए जाती थी, मगर वह अपने उद्देशय से पीछे नहीं हटती थी। उसके लिए भोजन खाना और सांस लेना ही जीवन नहीं था, उसके लिए शिक्षा भी इतनी आवश्यक लगती थी जितनी कि एक शरीर में आत्मा।

पल्लवी, ने बहुत दिन अपनी इसी उधेड़बुन में लगा दिए, और अंत में उसने अपनी पिताजी से बात करनी चाही और उनको चेतावनी दी के उसको शिक्षित होने से कोई नहीं रोक सकता, और वह शिक्षा हासिल करने के लिए और अपनी बहनों को पढ़ाने के लिए वह कुछ भी कर सकती है, चाहे उसको घर ही क्यों न छोड़ना पड़े।

उसने अपने पिता से आग्रह किया, बहुत गिड़गिड़ाई मगर उसके पिता ने उसकी एक भी बात नहीं सुनी।

अगले दिन की सुबह हुई, पूरी रात पल्लवी ने रो रोकर बिताई और एक दृढ़   निशचय किया, और उसको उस संस्था का ध्यान आया जो उसकी अध्यापिका ने उसको बताया था। वह सुबह भोर में अपनी माता से 20 रुपये लेकर बस अड्डे तक पैदल निकल गयी, मगर यह जो रास्ता उसके घर से बस अड्डे के बीच का था वह रास्ता अत्यंत कठिनाईयों से भरा हुआ था, पल्लवी अपना घर अपने पिता,और माता को छोड़ रही थी, घर से निकलने से पहले उसके अपनी चारों बहनों को प्यार किया और अपने से छोटी बहन को समझाया के तुम चिंता मत करना में बहुत जल्दी वापस लौटूंगी।

पल्लवी की मनोदशा अत्यंत तीर्व गति से नकारात्म और सकरात्मक पक्ष की और अग्रसर हो रही थी, उसने अपने साथ एक कॉपी और एक कलम साथ रखी थी, उसी कॉपी के पन्ने पर उस संस्था का नाम और पता दोनों थे। पल्लवी बस में बैठ गई और खुद से वचन लिया के मैं अपने जीवन का इतना बड़ा बलिदान दे रहीं हूँ, और सिर्फ शिक्षा के लिए, मुझे कामयाब होना होगा, और मैं एक चिकित्सक बन कर ही वापस घर लौटूंगी।

उधर पल्लवी को घर पर ना पाने की वजह से परिवार में हाहाकार मच गया, सबके शब्द यही थे कि ' लड़की किसी लड़के के साथ भाग गई होगी' और भी ना जाने कितने अपशब्दों से पल्लवी के घर का आँगन गूंज पड़ा और पल्लवी के पिताजी तो एक ज़िंदा लाश बन कर आँगन के कोने में बैठ गए थे।माँ सुन तो थी पर कुछ बोल न पाती थी, मगर उसकी आँखों पर आंसुओं का तूफान साफ नज़र आ रहा था, उसके शरीर का हर एक हिस्सा सजो चीख चीख कर महसूस करवा रहा था के पल्लवी चली गई। सोहन हलवाई ने उसी दिन परतापुर अपने पूरे परिवार के साथ छोड़ दिया। पल्लवी की पूर्व अध्यापिका श्रीमती प्रतिभा जी से सोहन हलवाई ने इतना कहा के ' मैडम अगर पल्लवी कहीं आपको मिले या दिखे तो कहना, उसके परिवार वाले उसके लिए मर गए, और कभी वापस नहीं आएंगे। श्रीमती प्रतिभा ने उनको कुछ समझाने की कोशिश तो की मगर उनके मुँह में एक शब्द भी न निकल पाया। परतापुर से निकलने के बाद सोहन हकवाई पास के ही गाँव में आने पुश्तैनी घर में जाकर रहने लगा।

कुछ ही क्षण में पल्लवी संस्था के गेट पर जा पहुंची और अंदर जाकर कार्यालय अधिकारी के पास जाकर अपनी आप बीती सुनाई। इस पर उस अधिकारी ने कोई खास प्रतिक्रिया ना देकर, पल्लवी को साथ वाले कमरे में रुकने को कहा। कुछ देर में संस्था की निदेशक आईं और उन्होंने पल्लवी से बात की, पल्लवी से बात कर के उनको सारी बात अच्छी तरह समझ आ गई।उन्होंने पल्लवी का मनोबल बढ़ाते हुए कहा की ' देखो! पल्लवी तुम अपना सब कुछ छोड़ कर शिक्षा ग्रहण करने आई हो, अब खुद से प्रण लो के तुम अब इस संस्था से डॉक्टर की पढ़ाई पूरी कर के ही निकलोगी।

संस्था में राज्यसरकार का हस्तक्षेप था, सरकार संस्था को चलाने के लिए, विद्यालयों से संपर्क में रहते थे। प्रतिभाशाली बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने का प्रयास किया जाता था। बारहवीं कक्षा के बाद बच्चों को स्कोलरशिप देने का भी प्रावधान था।

पल्लवी ने कक्षा 9वीं में दाखिला लिया और पूरे चार साल उसने अपनी सारी लगन और मेहनत अपनी शिक्षा के लिए न्यौछावर कर दिये।

इन चार सालों में श्रीमती प्रतिभा पल्लवी से मिलने आती रहीं और उसको घर का हाल चाल बता कर चली जातीं। पल्लवी अपने बचे हुए समय में संस्था के सिलाई के कारखाने में कार्य करती थी और पैसा जोड़ने लगी।जिस समय पल्लवी चिकित्सा में स्नातक की पढ़ाई कर रही थी, उसी दौरान सोहन हलवाई ने अनामिका का रिश्ता गाँव के सरपंच के मुखिया के बेटे से पक्का करना चाहा, सरपंच का बेटा परास्नातक था हिंदी भाषा में और विद्यालय में शिक्षक था।बात आगे बढ़ाई जाने लगी, इसी बीच संरपंच के बेटे ने अनामिका की शिक्षा की बात छेड़ दी, और पूछा
" कितनी शिक्षा ग्रहण की है?"
"कोई खास खूबी या कोई पसंदीदा विषय"??
इस बात के उत्तर में सोहन ने दबे शब्दों में कहा
" बेटा, मैंने अपनी किसी भी लड़की को विद्यालय नहीं भेजा" मगर इसे लिखना पढ़ना आता है"।

यह वाक्य सुन कर सरपंच के बेटे की आंखों में गुस्से की लालिमा साफ देखी जा सकती थीं, उसने बोला सोहन हलवाई जी,आपने अपनी पुत्रियों को ना पढा कर उनको अनपढ़ की ही उपाधि से नही नवाज़ा बल्कि आपने उनको अपाहिज कर दिया है। मैं एक पढ़े लिखे घर की लड़की से शादी करना चाहूंगा,जहां शिक्षा ही सब कुछ हो।

यह बात सुन कर सोहन को जैसे सांप सूंघ गया हो, आज इसको लगा कि शिक्षा प्राप्त करना कितना जरूरी है?अब कुछ नहीं हो सकता था, सोहन को ऐसा लगा के उसके अभिमान को इस बात से गहरी चोट पहुंची। और उसने फैसला किया के इसी हफ्ते मैं अनामिका की शादी करवा कर दम लूंगा अन्यथा आत्मदाह कर लूंगा।सोहन हलवाई ने लड़के की खोज शुरू कर दी, अंत में एक डाकिये का अधेड़ उम्र का बेटा जिसका तलाक हो चुका था, उसने अनामिका के लिए उसके पिताजी से बात और कहा दहेज ट्रक भर भर के सामान दूंगा। आप रिश्ते को मना मत करना। डाकिया भी प्रसन्न हो गया के उसके बेटे को एक अच्छे घर की कन्या से शादी का रिश्ता आया है।शादी पक्की हो गई, और विवाह भी सम्पन्न हुआ, सोहन हलवाई ने ढेर सारा दहेज दिया, और वो दहेज उसने अपनी एकलौती दुकान गिरवी रख कर दिया था।उसने सोचा छोटा खेत हैं उसी से गुजारा कर लेंगे, मगर भगवान को कुछ और ही मंजूर था, सोहन हलवाई की हालत दिनों दिन अत्यंत दयनीय होती जा रही थी और घर में अन्न भी खात्मे पर था। श्रीमती प्रतिभा ने सोहन जी से पल्लवी के लिए बात की थी के एक बार उस से मिल लीजिये, या यहाँ बुला लीजिये, तब सोहन ने झल्ला कर बोला ' मेरी चिता से गुजर कर आना होगा उसको घर वरना मैं उसको जान से खत्म कर दूंगा। उसने भाग कर शादी की और मेरी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी'.
यह बात सुनकर श्रीमती प्रतिभा जी हतप्रद और व्याकुल हो उठीं और चिल्लाकर बोली " सोहन जी आपकी बुद्धि भ्र्ष्ट हो चुकी है, आपको पता भी है आप क्या बके जा रहे हैं? पल्लवी ने शादी नहीं कि बल्कि दिन रात एक कर के उसने अपनी शिक्षा को समय दिया और संस्था के सिलाई कारखाने में कार्य किया, और आज वह चिकित्सा में स्नातक मि पढ़ाई कर रही है और साथ के साथ उसकी ट्रेनिंग भी चल रही है, अपने घोर पाप किया है" और इसके बाद श्रीमती प्ररिभा उनके घर से चली गईं और फिर कभी नहीं लौटी। मगर जाते जाते उनके अनेक शब्द सोहन हलवाई के कानों में कई घण्टों गूंजते रहे और उसको आत्मग्लानि का एहसास कराते रहे। उसको विश्वास हो गया था के रूढ़िवादी परम्परा हमारे समाज को और भी पीछे धकेल रही है। इस के साथ साथ अनामिका भी घर वापस आ गई, क्योकिं डाकिये के बेटे ने उसको तलाक दे दिया था, क्योंकि वह उसके मदिरापान से तंग आ चुकी थी और उसको रोकती थी, सोहन लाल हलवाई सर पर हाथ रखे बैठे बैठे ही मूर्छित हो गए, और उनको इतना गहरा आघात लगा के वह परलोक सिधार गए, पूरे परिवार के पास अब पल्लवी के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था। माँ बेचारी इन सब स्तिथि को अच्छी तरह समझ गयी थी और मन ही मन सोच रही थी के अब हम सबको भी आत्महत्याबकर लेनी चाहिए, अनामिका ने भि अपने जीवन से हार मान ली थी। छोटी बहनों का दर्द और माँ का दर्द उस से देखा नहीं जा रहा था। और दूसरी तरफ पल्लवी को जैसे ही अपने पिता की मृत्यु की खबर पहुंची उसने  जो कुछ भी थोड़ा बहोत पैसा अपनी माँ और बहनों के लिए जमा कर रखा था वह पैसे उसने उठाये और मुख्य अध्यापिका से कुछ दिन का अवकाश लेकर घर को निकल पड़ी।अगले दिन सुबह पल्लवी अपने घर पर पहुँच गयी थी और उसने जो दृश्य देखा वह अत्यंत विचलित कर देने वाला था, अनामिका ने आत्महत्या कर ली थी वह फांसी के फंदे पर झूल रही थी और बाप का शव ज़मीन पर पड़ा हुआ था, माँ ने भी अपनी जीवन लीला खेतो में डालने वाला कीटनाशक खाकर समाप्त कर ली थी, और मुह से खून की धारा बह रही थी, यह दृश्य अत्यंत दुःखद था और विचलित कर देने वाला।

पल्लवी ने धीरे धीरे सारे शवबको खुद समेटा और अपनी बहनों को गले लगाकर खूब रोई, स्तिथि इतनी दयनीय थी के बहनों के मुँह सूख चुके थे भूख की वजह से। पल्लवी ने अपने पिता, माँ और बहन का अंतिम संस्कार खुद किया और अपनी बहनों को लेकर संस्था में आ गई, आने से पहले वह प्रतिभा जी से मिल कर आई थी और सारी व्यथा सुन कर। वापस आकर उसने संस्था के विदयालय में अपनी छोटी बहनों का दाखिला करवाया और खुद चिकित्सक की ट्रेनिंग करती रही और 1 साल बाद उसकी नौकरी दिल्ली के एम्स में प्रसूति विभाग में लग गई। उसने अपने जीवन को साकार कर लिया था, क्योकि उसने अपना सबसे मजबूत पक्ष शिक्षा को बनाया था और शिक्षा का रास्ता स्वर्ग तक जाता है, इस बात का जीता जागता उदाहरण पल्लवी का जीवन है।

हमसबको इस कहानी से शिक्षा लेनी चाहिए के जीवन में शिक्षा लेनी अत्यंत आवश्यक है। आपका हुनर कोई नहीं छीन सकता न आपकी शिक्षा।

शिक्षा के लिए जागरूक बनें और दोबारा से कोई सोहनलाल न बने और ना बेचारी अभागी उसकी पत्नी, कर अनामिका जिसने जीवन की कड़वाहटों को झलने में असमर्थता दिखाई।

Wednesday, July 10, 2019

बेड़ियां तोड़ डालूंगी

बेड़ियां तोड़ डालूंगी।

मैं आभा, 18 वर्षीय विवाहिता। 15 वर्ष की उम्र में माँ ने मेरा ब्याह करवा दिया था।एक अधेड़ पुरुष के साथ जुड़ कर,मुझे ऐसा लगा के जैसे मैं आग के पिंजड़े में हूँ। अधेड़ तो मैं दुःखी मन से बर्दाश्त कर लेती, मगर उसकी गालियाँ और शराब, मुझे हर पल एक ज़हर का घूट पीने पर मजबूर कर देती थी। मुझे लगता था ये दिन मेरा आख़िरी दिन ही होगा।तीन बार खुद को तेल के हवाले भी किया, मगर वही ढाक और पात। फिर खुद ही फंदे पर लटकी। मूआ! स्टूल ही टूट गया। लगता था भगवान ही नहीं चाहता था के मैं उसके पास आऊं।

एक रात की बात है मैं खाना बर्तन कर के सो गई। गिरधर (पति) रात 1 बजे तक भी नहीं आया था। रात के आख़िरी पहर में दरवाजा खटकने की आवाज़ के साथ मेरी सदियों की नींद जो जीवन के चक्रव्यूह से कोसो दूर थी , वो टूट गई। द्वार खोल के देखा तो गिरधर शराब की बोतल के साथ साथ एक दरोगा को भी साथ लाया था। मैं एकबार तो समझी गिरधर को पकड़ कर दरोगा घर आया है, पर दरोगा को गिरधर खुद अपने घर पर मेरी देह का सौदा कर के लाया था।

साहब! ये है। जो करना है कर लो ( गिरधर दहाड़ा)

मैं तब भी न समझ सकी थी के आज मेरा पासबान मेरी इज़्ज़त को दांव पर रख आया है, और आज मैं वो बाज़ार बनने वाली थी, जिसके खरीदार की शुरुआत हो चुकी थी।

दरोगा : देह से तो कोमल है, परन्तु साथ देगी मेरा?

गिरधर:  अरे!साहब कैसे नही देगी आपका साथ।

मैं बोल पड़ी ' गिरधर ये तुम क्या अनाप शनाप बके जा रहे हो।

गिरधर: आज मेरी सेज नहीं दरोगा की सजेगी।

मैं टूट कर ज्यों बिखर गई मानो लगा के किसी शीशे पर कई मन का पत्थर आ गिरा हो

मैं द्वार की ओर बढ़ी ओर भागने को मेटे कदम विवश हो रहे थे। पर जब भाग्य की सीमा में मुझे पति के सामने वैशया बनने की हो तो भला कौन रोक सकता है।
मेरी साड़ी का आँचल पकड़ कर गिरधर ने मुझे एक पत्नी से एक वेश्या की उपाधि देने में देर न करी।

भोर में मुर्गे की बांग से गिरधर की चोर नज़र के साथ साथ उसकी नींद भी उखड़ गए। मैं तो मानो वो मूर्ति बन गयी थी, जो बीती  रात पूजनीय थी और अब बस एक मिट्टी का पुतला भर, जो न तो पौधे के काम आ सके न किसी लीपापोती के।


गिरधर -चल, खाना लगा, रात से भूखा हूँ.दरोगा रोज़ आएगा, और ज़रा सी भी चूं चैं की तुझे तलाक देकर किसी कोठे पर छोड़ आऊंगा।यहाँ तो तेरा एक खरीदार होगा, वहाँ न जाने कितने सैकड़ो।

मैं मूक दृष्टि से ये सब देख रही थी।और कोस रही थी।
मैं औरत क्यों हूँ। पर अंदर की आभा की आभा अभी भी कमज़ोर नही पड़ी थी।

मैं शांत स्वभाव से खाना परोस कर नहाने चली गयी। 

एक दिन।

मैं एक साधारण परिवार में जन्मी लड़की हूँ। मैं दिल्ली में पैदा हुई और यही बड़ी हुई। मेरे पिताजी एक व्यापारी थे, मगर धोखाधड़ी से काफी दूर। मैं अपने घर में चौथी सन्तान थी। मैं सबसे छोटी और सबकी चहेती रही। मेरी माँ, मेरी आँखों में घर का काजल लगती थी,जो किसी शकोरे के नीचे एक बत्ती को सुलगा कर बनाया जाता था। माथे के कोने पर बड़ा सा टीका लगा कर मैं अपने घर के आंगन में राजकुमारी जैसी इतराती थी। मेरे घर के आंगन में एक छोटा मगर बड़े काम मे अमरूद का पेड़ लगा था, और साथ ही चमेली की बेल भी थी। जो पूरी गली को ऐसे महकाती थी मानो किसी ने इत्र की पूरी शीशी सड़क पर बिखेर दी हो।मेरे घर के अमरूद के पेड़ पर लाल बीज के अमरूद आते थे, और मैं केवल 1 वर्ष की थी, और ऊपर पेड़ की टहनियों पर चढ़ कर बैठ जाया करती थी। अम्मी मुझे नीचे उतारती हुई कहती " इसके पेट में दाढ़ी है,कोई पुरानी रूह लगती है" कहने के बाद अम्मी खूब ठहाका लगा कर हंसतीं और मुझे नीचे उतार देती।
" निगोड़ी नीचे उतर जा, कही पैर फिसल गया तो गयी काम से "
अम्मी के ये कहकहे मुझे मेरी मौसी अक्सर बताया करती थी।

मैं शुरू से ही पढ़ने की शौकीन रही। मेरी अम्मी का एक और वाकया जो मुझे भी हसने पर मजबूर कर देता है।
मेरे बड़े भाई और दो बड़ी बहनें एक साथ स्कूल जाया करते थे, मैं घर में कपड़ों की गुड़िया के साथ कुछ न कुछ उधेड़बुन में लगी रहती थी। मैं कभी कभी अम्मी के साथ अपने भाई बहनों को स्कूल छोड़ने जाया करती थी। मैं मात्र 2 वर्ष की आयु से ही सभी रास्तों की पहचान करने लगी थी।


एक बार की बात है अम्मी सभी को स्कूल छोड़ने के बाद मुझे नहला धुला कर काम करने लगीं। उस दिन मैंने भाईजान की बेल बॉटम वाली पेंट और अंदर उनके बचपन की बुशर्ट पहनी हुई थी। मेरे बालो को अम्मी फ़िलहाल छोटा ही रखती थीं। मैं गहरी सोच में पड़ी थी, के क्या करूँ आज आज गुड़िया गुड्डो से खेलने वाला मन कहीं उड़ने की सोच रहा था। आज मुझे अमरूद की डालियां भी अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रहीं थी। करू तो क्या करूँ?? मैंने सोचा क्यों न आज भाईजान के स्कूल जाया जाए। बस मेरी स्कूल जाने की ललक ने मुझमे घर से बाहर निकलने के लिए पूरे आत्मविश्वाश से भर दिया, और मैं घर से निकल पड़ी, अम्मी रजाई में धागा डालने में मशगूल रहीं।

दोपहर का वक़्त आ गुज़रा, अम्मी ने घर में ढूंढ मचा दी के मैं कहाँ चली गयी, घर के एक कोना कोना झांक लिया, तख्त के नीचे भी देख लिया, घर के आंगन से लेकर गुसलखाने तक मेरी अम्मी की निगाह मुझे ढूंढ आईं।

अम्मी ने पूरे मोहल्ले में मेरी तलाशी शुरू की,

"भाई एक छोटी बच्ची है घर से निकली हुई है आपने देखा कहीं??

अम्मी के ये सवाल मुझे आज भी व्याकुल कर देते हैं।।खैर।

अम्मी सबसे बोले जा रही के मेरी बच्ची को कहीं देखा, मगर सबकी ज़ुबान पर एक ही अल्फ़ाज़ रहा
"नहीं"

अम्मी थक हार कर मोहल्ले की अम्मा के पास गयीं और सारी आपबीती सुना डाली। अम्मा ने ऊंचे स्वर में पूछा।

"अरि कम्बख्त ये तो बता कहाँ गई वो?? क्या हुलिया था? क्या पहना था??

अम्मी सकपकाई और दबी ज़ुबान में बोलीं उसको पैंट और बुशर्ट पहनाई थी, और नहला कर घर के आंगन में ही बैठा दिया था।

अम्मा ने इतना सुना और कहा

"चल मेरे साथ, मुझे बुढ़िया को तू और थका। ।

अम्मा रास्ते में जाते जाते लोगों से पूछ रहीं थी

"अरे भाई तुमने कोई 2 या ढाई साल का लड़का देखा, अकेले??

ये सुनकर अम्मी चिल्लाने लगीं अम्मा मेरी बेटी गुलबानो खोई है मेरे बेटा नहीं।

अम्मा ने कहा

" तूने मुझे जो हुलिया बताया था वो किसी लड़के का ही मालूम पड़ता है। ऊपर से तूने उसके बाल मुंडवा रखे हैं। लड़की कहाँ से लगेगी वो। निगोड़मारी! कम्बख्त तू भी फैशन में डूबी जा रही।


ये सुन कर अम्मी खींज गयीं और चलते चलते भाईजान को इत्तेला देने के लिए स्कूल पोहोंची।

मैं वहाँ पहले से ही मौजूद थी, और बच्चों के साथ गुल्ली डंडा खेलने में ऐसी मशगूल थी के जैसे किसी प्यास से मरते हुए इंसान को पानी मिल जाये, या ये कहलो के किसी उड़ने की चाह रखने वाले पंछी को पर मिल गए हों।

अम्मी ने मुझे देख कर गले से लगा लिया, और अम्मा की गलियों की बौछारों ने अम्मी को शर्म से पानी पानी कर दिया।
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