Wednesday, July 10, 2019

बेड़ियां तोड़ डालूंगी

बेड़ियां तोड़ डालूंगी।

मैं आभा, 18 वर्षीय विवाहिता। 15 वर्ष की उम्र में माँ ने मेरा ब्याह करवा दिया था।एक अधेड़ पुरुष के साथ जुड़ कर,मुझे ऐसा लगा के जैसे मैं आग के पिंजड़े में हूँ। अधेड़ तो मैं दुःखी मन से बर्दाश्त कर लेती, मगर उसकी गालियाँ और शराब, मुझे हर पल एक ज़हर का घूट पीने पर मजबूर कर देती थी। मुझे लगता था ये दिन मेरा आख़िरी दिन ही होगा।तीन बार खुद को तेल के हवाले भी किया, मगर वही ढाक और पात। फिर खुद ही फंदे पर लटकी। मूआ! स्टूल ही टूट गया। लगता था भगवान ही नहीं चाहता था के मैं उसके पास आऊं।

एक रात की बात है मैं खाना बर्तन कर के सो गई। गिरधर (पति) रात 1 बजे तक भी नहीं आया था। रात के आख़िरी पहर में दरवाजा खटकने की आवाज़ के साथ मेरी सदियों की नींद जो जीवन के चक्रव्यूह से कोसो दूर थी , वो टूट गई। द्वार खोल के देखा तो गिरधर शराब की बोतल के साथ साथ एक दरोगा को भी साथ लाया था। मैं एकबार तो समझी गिरधर को पकड़ कर दरोगा घर आया है, पर दरोगा को गिरधर खुद अपने घर पर मेरी देह का सौदा कर के लाया था।

साहब! ये है। जो करना है कर लो ( गिरधर दहाड़ा)

मैं तब भी न समझ सकी थी के आज मेरा पासबान मेरी इज़्ज़त को दांव पर रख आया है, और आज मैं वो बाज़ार बनने वाली थी, जिसके खरीदार की शुरुआत हो चुकी थी।

दरोगा : देह से तो कोमल है, परन्तु साथ देगी मेरा?

गिरधर:  अरे!साहब कैसे नही देगी आपका साथ।

मैं बोल पड़ी ' गिरधर ये तुम क्या अनाप शनाप बके जा रहे हो।

गिरधर: आज मेरी सेज नहीं दरोगा की सजेगी।

मैं टूट कर ज्यों बिखर गई मानो लगा के किसी शीशे पर कई मन का पत्थर आ गिरा हो

मैं द्वार की ओर बढ़ी ओर भागने को मेटे कदम विवश हो रहे थे। पर जब भाग्य की सीमा में मुझे पति के सामने वैशया बनने की हो तो भला कौन रोक सकता है।
मेरी साड़ी का आँचल पकड़ कर गिरधर ने मुझे एक पत्नी से एक वेश्या की उपाधि देने में देर न करी।

भोर में मुर्गे की बांग से गिरधर की चोर नज़र के साथ साथ उसकी नींद भी उखड़ गए। मैं तो मानो वो मूर्ति बन गयी थी, जो बीती  रात पूजनीय थी और अब बस एक मिट्टी का पुतला भर, जो न तो पौधे के काम आ सके न किसी लीपापोती के।


गिरधर -चल, खाना लगा, रात से भूखा हूँ.दरोगा रोज़ आएगा, और ज़रा सी भी चूं चैं की तुझे तलाक देकर किसी कोठे पर छोड़ आऊंगा।यहाँ तो तेरा एक खरीदार होगा, वहाँ न जाने कितने सैकड़ो।

मैं मूक दृष्टि से ये सब देख रही थी।और कोस रही थी।
मैं औरत क्यों हूँ। पर अंदर की आभा की आभा अभी भी कमज़ोर नही पड़ी थी।

मैं शांत स्वभाव से खाना परोस कर नहाने चली गयी। 

एक दिन।

मैं एक साधारण परिवार में जन्मी लड़की हूँ। मैं दिल्ली में पैदा हुई और यही बड़ी हुई। मेरे पिताजी एक व्यापारी थे, मगर धोखाधड़ी से काफी दूर। मैं अपने घर में चौथी सन्तान थी। मैं सबसे छोटी और सबकी चहेती रही। मेरी माँ, मेरी आँखों में घर का काजल लगती थी,जो किसी शकोरे के नीचे एक बत्ती को सुलगा कर बनाया जाता था। माथे के कोने पर बड़ा सा टीका लगा कर मैं अपने घर के आंगन में राजकुमारी जैसी इतराती थी। मेरे घर के आंगन में एक छोटा मगर बड़े काम मे अमरूद का पेड़ लगा था, और साथ ही चमेली की बेल भी थी। जो पूरी गली को ऐसे महकाती थी मानो किसी ने इत्र की पूरी शीशी सड़क पर बिखेर दी हो।मेरे घर के अमरूद के पेड़ पर लाल बीज के अमरूद आते थे, और मैं केवल 1 वर्ष की थी, और ऊपर पेड़ की टहनियों पर चढ़ कर बैठ जाया करती थी। अम्मी मुझे नीचे उतारती हुई कहती " इसके पेट में दाढ़ी है,कोई पुरानी रूह लगती है" कहने के बाद अम्मी खूब ठहाका लगा कर हंसतीं और मुझे नीचे उतार देती।
" निगोड़ी नीचे उतर जा, कही पैर फिसल गया तो गयी काम से "
अम्मी के ये कहकहे मुझे मेरी मौसी अक्सर बताया करती थी।

मैं शुरू से ही पढ़ने की शौकीन रही। मेरी अम्मी का एक और वाकया जो मुझे भी हसने पर मजबूर कर देता है।
मेरे बड़े भाई और दो बड़ी बहनें एक साथ स्कूल जाया करते थे, मैं घर में कपड़ों की गुड़िया के साथ कुछ न कुछ उधेड़बुन में लगी रहती थी। मैं कभी कभी अम्मी के साथ अपने भाई बहनों को स्कूल छोड़ने जाया करती थी। मैं मात्र 2 वर्ष की आयु से ही सभी रास्तों की पहचान करने लगी थी।


एक बार की बात है अम्मी सभी को स्कूल छोड़ने के बाद मुझे नहला धुला कर काम करने लगीं। उस दिन मैंने भाईजान की बेल बॉटम वाली पेंट और अंदर उनके बचपन की बुशर्ट पहनी हुई थी। मेरे बालो को अम्मी फ़िलहाल छोटा ही रखती थीं। मैं गहरी सोच में पड़ी थी, के क्या करूँ आज आज गुड़िया गुड्डो से खेलने वाला मन कहीं उड़ने की सोच रहा था। आज मुझे अमरूद की डालियां भी अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रहीं थी। करू तो क्या करूँ?? मैंने सोचा क्यों न आज भाईजान के स्कूल जाया जाए। बस मेरी स्कूल जाने की ललक ने मुझमे घर से बाहर निकलने के लिए पूरे आत्मविश्वाश से भर दिया, और मैं घर से निकल पड़ी, अम्मी रजाई में धागा डालने में मशगूल रहीं।

दोपहर का वक़्त आ गुज़रा, अम्मी ने घर में ढूंढ मचा दी के मैं कहाँ चली गयी, घर के एक कोना कोना झांक लिया, तख्त के नीचे भी देख लिया, घर के आंगन से लेकर गुसलखाने तक मेरी अम्मी की निगाह मुझे ढूंढ आईं।

अम्मी ने पूरे मोहल्ले में मेरी तलाशी शुरू की,

"भाई एक छोटी बच्ची है घर से निकली हुई है आपने देखा कहीं??

अम्मी के ये सवाल मुझे आज भी व्याकुल कर देते हैं।।खैर।

अम्मी सबसे बोले जा रही के मेरी बच्ची को कहीं देखा, मगर सबकी ज़ुबान पर एक ही अल्फ़ाज़ रहा
"नहीं"

अम्मी थक हार कर मोहल्ले की अम्मा के पास गयीं और सारी आपबीती सुना डाली। अम्मा ने ऊंचे स्वर में पूछा।

"अरि कम्बख्त ये तो बता कहाँ गई वो?? क्या हुलिया था? क्या पहना था??

अम्मी सकपकाई और दबी ज़ुबान में बोलीं उसको पैंट और बुशर्ट पहनाई थी, और नहला कर घर के आंगन में ही बैठा दिया था।

अम्मा ने इतना सुना और कहा

"चल मेरे साथ, मुझे बुढ़िया को तू और थका। ।

अम्मा रास्ते में जाते जाते लोगों से पूछ रहीं थी

"अरे भाई तुमने कोई 2 या ढाई साल का लड़का देखा, अकेले??

ये सुनकर अम्मी चिल्लाने लगीं अम्मा मेरी बेटी गुलबानो खोई है मेरे बेटा नहीं।

अम्मा ने कहा

" तूने मुझे जो हुलिया बताया था वो किसी लड़के का ही मालूम पड़ता है। ऊपर से तूने उसके बाल मुंडवा रखे हैं। लड़की कहाँ से लगेगी वो। निगोड़मारी! कम्बख्त तू भी फैशन में डूबी जा रही।


ये सुन कर अम्मी खींज गयीं और चलते चलते भाईजान को इत्तेला देने के लिए स्कूल पोहोंची।

मैं वहाँ पहले से ही मौजूद थी, और बच्चों के साथ गुल्ली डंडा खेलने में ऐसी मशगूल थी के जैसे किसी प्यास से मरते हुए इंसान को पानी मिल जाये, या ये कहलो के किसी उड़ने की चाह रखने वाले पंछी को पर मिल गए हों।

अम्मी ने मुझे देख कर गले से लगा लिया, और अम्मा की गलियों की बौछारों ने अम्मी को शर्म से पानी पानी कर दिया।
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